चिकित्सा
*समाज को मूँह चिढ़ाती स्वास्थ सेवायें*
ख़बर *परवेज़ अख्तर* की✍️ से
स्वास्थसेवा के साथ नाम जुड़ा है सेवा का और अब स्वास्थ्य से सेवा का दूर दूर तक नाता नहीं है!
जनता के लिये मंहगाई बेरोजगारी मुफलिसी परेशानी तो अपनी जगह हैं!
इसी के साथ अगर किसी अपने का कोई बीमार होता है,या गम्भीर बीमारी होती है या फिर कोई एक्सीडेंटल मुसीबत आती है तो वो मध्यम वर्गीय परिवार पूरी तरह चौपट हो जाता है जो रोज मर्रा की ज़िंदगी में ही घुट रहा होता है!
धरती के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर्स अब भगवान नहीं रहे !
अब ये बिज़नेस मैंन हो गए हैं, सौदागर हो गए हैं, जो हर चीज़ में सौदा कर रहे हैं खून से लेकर शरीर के अंग तक का सौदा कर रहे हैं !
फर्जी जांच करा कर मंहगी दवाइयां लिख कर बेवजह आपरेशन करके कई डाक्टर लुटेरे बन चुके हैं!
कई जगहों पर तो इंसान अपना सबकुछ बेचकर भी डाक्टर व अस्पताल का कर्ज़दार बना रहता है और तो और कई जगहों पर तो ऐसा भी देखने में आया है कि मरीज़ के मर जाने के बाद भी लाश लाने के लिये भी डॉक्टर को पेमेंट करना होता है!
कितना अजीब लगता है कि एक डॉक्टर जब किसी का ट्रीटमेंट करता है तो ढेर सारी जांच कराता है दवाइयां लिखता है, पर वही मरीज़ दूसरे डॉक्टर के पास जाता है तो दूसरा डॉक्टर अपने तरीके से अपने कमीशन के लिये अपने बताए पैथालॉजी से ढेरों जांचे कराता है और अपनी दवाइयां लिखता है!
ऐसा ये डॉक्टर्स क्यों करते हैं
क्योंकि........
स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के लिये डॉक्टर्स अकेले जिम्मेदार नहीं है ! स्वास्थ सेवाओं के बिगड़े हालात में सरकार व सिस्टम भी जिम्मेदार है ! जैसे कि मेडिकल लाईन में आसानी से दाखिला नहीं होता है, इसके बाद सरकारी स्तर पर एमबीबीएस व इस प्रोफेशन में जाने की एक मोटी फीस निर्धारित की हुई है ! प्राइवेट कॉलेज की क्या स्तिथि है ये किसी से छिपी नहीं है! इसके बाद कई जगाहों पर मोटा डोनेशन भी चलता है कुछ को छोड़ कर हज़ारों डॉक्टर्स अपनी पढ़ाई पूरी करते करते करोड़ रुपये के आस पास खर्च करने के बाद डॉक्टर बनते हैं!
और कई जगाहों पर ये पैसा इनके माँ बाप कर्ज़ लेकर ज़मीन बेचकर जेवर बेचकर खूब जद्दोजहद करके अदा करते हैं!
और इतना खर्च करने के बाद अपने घर वालों की मुसीबत देखने के बाद जब वो डॉक्टर बनता है तो वो सेवा करने के लिए नहीं बनता है! वो डॉक्टर बनता है तो बिजनेस करने के लिए बनता है। सेवा भाव से कोसो दूर रहता है।
इसके बाद सरकारी स्तर पर जनता के सुविधाओं के मामले में सरकारी विज्ञापन व बिल्डिंग व फालतू खर्च की एक लंबी फेहरिस्त है जो सरकार खर्च करती है!
पर ज़मीनी हक़ीक़त ये है कि गम्भीर मरीज़ को अस्पताल में स्ट्रेचर भी बड़ी मुश्किल से मिलता है फिर बेड की मारामारी होती है और अगर वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ जाती है तो या तो मरीज़ की किस्मत अच्छी होती है तो वेंटिलेटर मिलता है या फिर वो सोर्सफुल आदमी हो तो वेंटिलेटर मिलता है ! इसके अलावा भर्ती मरीजों की घण्टो लाइन में लगने के बाद जांचे होती हैं हर एक चीज़ के लिए अलग अलग विण्डो पर घंटों लाइन लगानी पड़ती है फिर चाहे मरीज़ कितना ही गम्भीर क्यों न हो! इसी के साथ मरीज़ से ज़्यादा तीमारदारों की हालत बुरी हो जाती है। अपने मरीज़ का बुरा हाल देख कर और सिस्टम के मकड़जाल में उलझ कर तीमारदार जब परेशान होता है तो फिर खेल शुरू होता है वहाँ मौजूद दलालों का और प्राइवेट अस्पतालों का।
दलाल लॉबी व प्राइवेट अस्पताल इस बात का पूरा फायदा उठाते हैं!
सरकारी बड़े अस्पतालों में जब तब इन्ही सब बातों के खुलासे होते रहते हैं जहाँ दलाल लोग तीमारदारों की परेशानी का पूरा फायदा उठाते हैं। और प्राइवेट अस्पताल की चकाचौंध में फंसा कर लाखों रुपये की लूट करते हैं।
एक जानकारी के मुताबिक लॉरी जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में इमरजेंसी के 59 बेड है!
जबकि मरीज़ सैकड़ों की तादात में आते हैं।
इसी तरह के मामले ट्रॉमा सेन्टर केजीएमसी लोहिया लोकबंधु व अन्य सरकारी अस्पतालों के हैं!
जहाँ वेंटिलेटर खाली न होने बेड खाली न होने व स्ट्रेचर न मिलने के कारण गम्भीर मरीज़ भी इधर से उधर टहलाये जा रहे होते हैं।
सरकारी स्तर पर बाहरी बिल्डिंग की चमकदमक से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है अस्पताली सुविधाओं पर पहले ध्यान दिया जाये। डॉक्टर्स के लिए काबिलयत के दम पर दाखिला व खर्च आसान बनाया जाए!
और डॉक्टर्स भी इस बात को ज़हन में बैठायें कि आज के हालात जो भी बन पड़े हों....पर वो धरती के भगवान थे, और हैं, व हमेशा रहेंगे,
सिस्टम में व डॉक्टर्स में मरीज़ों व तीमारदारों के लिये "सेवा भाव" जाग जाएगा तो
(("स्वास्थ्य सेवाएं"))
कहने में भी अच्छा लगेगा
सुनने में भी अच्छा लगेगा
और लोगों को राहत भी मिलने लगेगी।।
*परवेज़ अख़्तर*
ब्यूरो चीफ़